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इस्लाम सब के लिए

अल्लाह कृपाशील, दयावान के नाम से

इस्लाम सब के लिए
(
सफलता एवं मुक्ति का एक ही मार्ग)

 हम में से कौन हैं जो इस जीवन में सफल होने की कामना नहीं रखता? सुबह से लेकर रात तक हम सब इसी एक प्रयत्न में लगे रहते हैं कि हमारा और हमारे परिवार का जीवन सफल हो जाए। इसके लिए हम सबने जीवन के कुछ लक्ष्य निर्धारित कर रखें हैं, जिसको प्राप्त करने के लिए हम एड़ी-चोटी का जोर लगा देते है और जब हम उस लक्ष्य को प्राप्त कर लेते हैं तो हमारी प्रसन्नता की कोई सीमा नहीं होती, अपनी सफलता पर हम खुशियॉँ मना रहे होते हैं। परन्तु किसी कारणवश यदि हम अपने निर्धारित लक्ष्य तक नहीं पहुँच पाते, तो अपनी इस असफलता पर अति दुखी भी होते हैं और प्राय: ईश्वर को इसके लिए दोषी भी ठहराते हैं।

सोचने की बात

थोड़ा-सा ध्यान देने से ही यह सत्य हमारी समझ में आसानी से आ जाएगा कि हम सबने अपनी सफलता का जो भी मानदंड निर्धारित किया है, उसका संबन्ध हमारे इस जीवन के एक बहुत-ही छोटे से अंश तक सीमित है। हमारा यह जीवन हमारी मृत्यु के साथ समाप्त नहीं हो जाता, बल्कि उसके बाद भी जारी रहता है (एक अल्प प्रतिशत के अतिरिक्त सब लोग मरणोपरान्त जीवन में विश्वास रखते हैं) और सफलता का हमारा सारा प्रयत्न इसी सांसारिक जीवन को सफल बनाने और शारीरिक सुख-सुविधाओं की प्राप्ति तक सीमित रहता है। मृत्यु के पश्चात क्या होनेवाला है, इस ओर हमारा ध्यान कम ही जाता है, जबकि वास्तव में हमारा प्रयत्न अपने सम्पूर्ण जीवन को सफल बनाने का होना चाहिए।

फिर यह बात भी किसी से छिपी हुई नहीं है कि हर किसी की सफलता और असफलता का मानदंड भी भिन्न-भिन्न होता है। किसी के लिए धन-दौलत का महत्व है तो किसी के लिए सत्ता का, कोई व्यापारी बनना चाहता है तो कोई अधिकारी, किसी के लिए एक सुखी पारिवारिक जीवन ही सफलता की कुंजी है तो किसी के लिए स्वस्थ शरीर ही सब कुछ है। अधिकतर लोग किसी एक लक्ष्य तक ही सीमित नहीं रहते, बल्कि हर लक्ष्य की प्राप्ती के उपरान्त वह दूसरा नया लक्ष्य निर्धारित कर लेते हैं और उसमें असफल हो जाने पर अपने जीवन को असफल मानने लगते हैं, जबकि अपने पहले लक्ष्य में वह सफल हो चुके होते हैं।

धर्म की भुमिका

इन्सान इस संसार में अपने आप नहीं आ गया। उसे एक ईश्वर ने पैदा किया है और इन्सान के जीवन का उद्देश्य और उसकी सफलता का मानदंड क्या होना चाहिए, यह उस ईश्वर से बेहतर कोई नहीं जानता। धर्म इन्सानों को इसी सत्य का ज्ञान देने का माध्यम है। उपासना-पद्धति का ज्ञान देने के साथ ही इन्सानों का सम्पूर्ण मार्गदर्शन करना। जीवन के हर क्षेत्र में मार्गदर्शन भी धर्म का ही दायित्व है और यदि कोई धर्म ऐसा नहीं करता तो वह अपूर्ण है।

सभी धर्मों और विचारधाराओं ने इस दायित्व को निभाने का प्रयत्न करते हुए इन्सानों के समक्ष सफलता  एवं मुक्ति का लक्ष्य प्रस्तुत किया है। पूरा मानव-इतिहास इस बात पर साक्षी है कि किसी न किसी रुप में मुक्ति को ही इन्सानों की सफलता के मानदंड के रुप में प्रस्तुत किया जाता रहा है। परन्तु इतिहास यह भी बताता है कि सफलता एवं मुक्ति की इन धाराओं में धर्मों और विचारधाराओं में परस्पर मतभेद और विरोधाभास पाया जाता रहा है।

 हिन्दू धर्म की विचारधारा

हिन्दू धर्म में मरणोपरान्त पुन: जन्म और पुनर्जन्म की दो अलग-अलग आस्थाएं पाई जाती हैं। एक ओर जहां वेदों में स्वर्ग और नरक का वर्णन मिलता है जिससे मरणोपरान्त पुन: जन्म की पुष्टि होती है, तो दूसरी ओर अन्य पुस्तकों में आवागमन का वर्णन भी पाया जाता है, जिसके अन्तर्गत आत्मा विभिन्न योनियों में बार-बार जन्म (पुनर्जन्म) लेकर उन्नति करती हुई ईश्वर की आत्मा में विलीन हो जाती है और यही उसकी मुक्ति है।

इन दोनों धारणाओं से हटकर श्रीमद्भगवतगीता में मुक्तिप्राप्ति का एक मार्ग तो यह बताया गया है कि इन्सान इस सांसारिक जीवन की व्यस्तताओं से अलग होकर ज्ञान और सत्य की खोज में स्वयं को पूर्णरुप से अर्पित कर दे। वहीं दूसरी ओर इस सांसारिक जीवन के कर्तव्यों को पूरा करते हुए अपनी तुच्छ इच्छाओं को त्याग देने को भी मुक्ति बताया गया है।

वेदों में आवागमन या पुनर्जन्म की धारणा नहीं पाई जाती। वेदों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि वास्तविक लोक दो ही हैं। एक वर्तमान लोक, दूसरा परलोक। वेदों के अध्ययन से यह भी ज्ञात होता है कि मुक्ति यह है कि परलोक में मनुष्य को उच्च स्थान प्राप्त हो, जहॉँ सभी कामनाऍँ पूर्ण हों, जहॉँ हर प्रकार का आनंद और सुख हो और जहॉँ ईश्वर का राज्य हो। वेदों में स्वर्ग का बड़ा ही सुन्दर और आकर्षक वर्णन मिलता है और नर्क का दिल दहला देनेवाला वर्णन भी। वेदों के अनुसार परलोक की सफलता ही वास्तविक सफलता और मुक्ति है।

“ऋग्वेद (9/113/11) में यह कामना की गई है कि आनन्द और स्नेेह जिस लोक में वर्तमान (मौजूद) रहते हैं, और जहॉँ सभी कामनाऍँ इच्छा होते ही पूर्ण होती हैं। उसी अमरलोक में मुझे जगह दो।”

“श्रीमद्भागवत महापुराण के पंचम स्कन्ध के अनुसार अट्ठाईस प्रकार के नर्क हैं। आत्मा का हनन करनेवाले, दुराचारी, पापी, असत्यगामी लोग नर्क को प्राप्त होते हैं।”                  (ऋ. 4/5/5 एवं यजु. 40/3)

बौद्ध धर्म की विचारधारा (धम्म)

बौद्ध मत की दृष्टि में मुक्ति अथवा निर्वाण यह कि इन्सान अपनी इच्छाओं को अपने वश में कर ले या उनसे छुटकारा पा जाए। महात्मा बौद्ध की दृष्टि में स्वर्ग अथवा नरक का कोई लौकिक (सांसारिक) अस्तित्व नहीं है, और एक इन्सान इसी सांसारिक जीवन में अपने अच्छे या बुरे कर्मों के आधार पर स्वर्ग अथवा नर्क को प्राप्त कर लेता है। गौतम बुद्ध ने ईश्वर के अस्तित्व को न तो स्विकार किया और न अस्विकार। उनका मानना था की एक इन्सान की मुक्ति के लिए किसी ईश्वर या देवी-देवता की कृपा या अनुग्रह की कोई आवश्यकता नहीं है। उन्होंने आत्मा के अस्तित्व को भी अस्वीकार किया है। अर्थात् बौद्ध मत में मुक्ति अथवा निर्वाण का संबन्ध मनुष्य के सांसारिक जीवन तक ही सीमित है। मरणोपरान्त जीवन के बारे में यह मत कोई मार्गदर्शन नहीं करता। धर्म में नैतिकता यदि ईश्वर के अस्तित्व के इन्कार पर आधारित हो, तो उसका क्रियान्वयन (पालन) अधिक समय तक संभव नहीं हो सकता और यही बौद्ध विचारधारा के साथ भी हुआ है।

जैन धर्म की विचारधारा

जैन मत का मानना है कि आत्मा इन्सानों के शरीर में कैद है और इस भौतिक शरीर से उसकी मुक्ति ही इन्सानों की वास्तविक मुक्ति है और उसके लिए आवश्यक है कि शरीर को इतनी पीड़ा और कष्ट दिया जाए कि आत्मा इस शरीर को त्याग दे। कठोर तपस्या भी इसका एक माध्यम है, इसीलिए इस मत के अनुसार श्रेष्ठ और सराहनीय मृत्यु वह हो सकती है कि आदमी भूखा रहकर मर जाए। यह मत ईश्वर को इस संसार के रचयिता के रुप में स्वीकार नहीं करता, परन्तु एक मुक्त-आत्मा को यह मत समस्त ईश्वरीय गुणों से सम्पन्न मानता है और यह भी विश्वास रखता है कि हर जीवित वस्तू यह स्थिति प्राप्त कर सकती है और कर भी रही है। इस प्रकार जैन मत अनगिनत ईश्वरों के अस्तित्व को स्विकार करता है। इनका मानना है कि प्रत्येक आत्मा कर्म से जुड़ी हुई है और इससे छुटकारा पाना ही उस आत्मा की मुक्ति है।

 सिख धर्म की विचारधारा

सिख धर्म ईश्वर में विलीन हो जाने को मुक्ति मानता है। इसके लिए न तो सांसारिक सुखों का त्याग करना है और न ही उपवास और तपस्या करना। बस ईश्वर में आस्था और उसका चिंतन-मनन करने के साथ एक सत्यमय जीवन व्यतित करना है। सिख धर्म एकेश्वरत्व का समर्थक है।

“जो लोग ईश्वर का चिंतन-मनन करते हैं उन्हें मोक्ष प्राप्त हो जाता है। ऐसे लोगों को जीवन-मृत्यु के चक्र से मुक्ति प्राप्त हो जाती है।”                                                                               (गुरु-ग्रंथ साहिब :11)

 

 

ईसाई धर्म की विचारधारा

ईसाई धर्म भी एकेश्वरत्व का समर्थक है, परन्तु इसमें इसकी परिभाषा बहुत स्पष्ट नहीं है। हज़रत ईसा मसीह को ईश्वर भी माना गया है, उसका पुत्र भी और पवित्र आत्मा भी। ईसाई धर्म के अनुसार पापों से पूर्णरुप से मुक्ति ही वास्तविक मुक्ति है। पाप इन्सानों के साथ उसके जन्म से ही लगा होता है और इन पापों से मुक्ति का एक ही रास्ता है और वह है हज़रत ईसा मसीह पर आस्था। इस मत का मानना है कि अब से 2000 वर्ष पूर्व ईश्वर के पुत्र (उनकी आस्था के अनुसार) ईसा मसीह ने सूली पर अपनी बलि देकर सभी इन्सानों के पापों का प्रायश्चित कर लिया है और पापों से मुक्ति और जीवन की मुक्ति का एक ही रास्ता है और वह है ईसा मसीह पर आस्था। ईसाई मत की पुस्तकों में यह स्पष्टीकरण नहीं मिलता कि हज़रत ईसा मसीह के समय से पूर्व गुज़रे हुए लोगों की मुक्ति का क्या होगा? न ही यह स्पष्टीकरण मिलता है कि हज़रत ईसा मसीह पर आस्था के बाद भी यदि कोई व्यिक्त पाप करता चला जाए, तो क्या उसकी मुक्ति फिर भी सुनिश्चित रहेगी?

 यहूदी धर्म की विचारधारा

यहूदी समझते हैं कि वह संसार में ईश्वर की चुनी हुई सर्वोच्च और सर्वश्रेष्ठ क़ौम हैं और ईश्वर से उनका विशेष और विशिष्ट संबन्ध है और इस वर्ग में जन्मे हर व्यिक्त की सफलता एवं मुक्ति जन्म से ही सुनिश्चित है। उनका यह भी मानना है कि नर्क तो अन्य धर्म के अनुयायियों के लिए ही बना है, यहूदियों को उसमें नहीं डाला जाएगा। यह मत साढ़े तीन हज़ार वर्षों से प्रचलित है और यह स्पष्टीकरण यहॉँ भी नहीं मिलता कि अगर किसी वर्ग विशेष में जन्म ही मुक्ति का आधार है, तो इस वर्ग से बाहर जन्में लोगों का क्या होगा?

इस्लाम की धारणा

इस्लाम में मुक्ति की धारणा बिल्कुल सीधी, साफ, स्पष्ट और विवेक पर ख़री उतरनेवाली है। इसमें सफलता एवं मुक्ति की प्राप्ति के लिए न तो संसार को त्यागना होता है, न ही यहां की सुख-सुविधाओं की तिलांजलि देनी होती है और न ही अपने शरीर को कष्ट देना होता है।

इस्लाम का मानना है कि जन्म के आधार पर सब इन्सान बराबर हैं और स्वर्ग किसी वर्ग विशेष के लिए आरक्षित नहीं है। इस्लाम इन्सानों को ऊँच-नीच के आधार पर विभाजित भी नहीं करता कि ऊँचों के लिए स्वर्ग हो और दूसरों के लिए नर्क। इस्लाम एक परिपूर्ण जीवनव्यवस्था है जो इन्सानी संसार के हर समस्या से मुक्ति और सफलता प्राप्त करने में संपूर्ण मार्गदर्शन करता है जिसकी जितीजागती तस्वीर मुहम्मद (स.) की पवित्र जीवनी है।

इस्लाम आवागमन की धारणा को पूर्णरुप से निरस्त करता है और उसे अप्राकृतिक और अविश्वसनीय मानता है। इस्लाम का मानना है कि मुक्ति की प्राप्ति हर व्यिक्त के लिए सम्भव है, चाहे वह किसी भी देश अथवा काल में जन्मा हो, यदि उसने ईश्वर द्वारा निर्धारित मार्गदर्शन के अनुसार अपना जीवन व्यतित किया है।

इस्लाम में सफलता एवं मुक्ति की धारणा को निम्नलिखित बिन्दुओं के द्वारा सरलता से समझा जा सकता है-

1) हमारा यह जीवन मृत्यु के साथ समाप्त नहीं हो जाता, बल्कि वास्तविक और अनंत जीवन तो मृत्यु के पश्चात ही आरंभ होता है।

2) इस संसार की रचना करनेवाला एक ही ईश्वर है और वही इस संसार को चला भी रहा है। संसार पर उसी का प्रभुत्व है, इसलिए आदर, सम्मान, पूजा, आराधना उपासना उस एक ईश्वर के अतिरिक्त अन्य किसी की नहीं की जानी चाहिए। इन्सानों के लिए क्या कुछ लाभदायक है और क्या कुछ हानिकारक यह उससे बेहतर कोई नहीं जानता, स्वयं इन्सान भी नहीं।

3) यह संसार सुचारु रुप से चल सके इसके लिए उसने एक सम्पूर्ण और विस्तृत जीवन-प्रणाली अवतरित की है और वह चाहता है कि मनुष्य अपनी इच्छा और स्वतंत्रता से उस प्रणाली के अनुसार ही समाज का निर्माण करे और अपना पूरा जीवन उसी के अनुसार व्यतित करे। मानवता के आरंभ से ही वह अपने ईशदूतों के माध्यम से सदैव विभिन्न भाषाओं और क़ौमों में इसी जीवन-प्रणाली से इन्सानों को अवगत कराता रहा है।

4) महाप्रलय के बाद वह समस्त मानवजाति को पुन: जीवित करेगा और प्रत्येक व्यिक्त से इस बात का हिसाब लेगा कि उसने ईश्वर द्वारा प्रदान किए गए अपने जीवन को उसकी आज्ञापालन में व्यतित किया अथवा उसकी अवज्ञा में, उसी की पूजा और आराधना की है या किसी और की। उसी के समक्ष नतमस्तक किया या किसी और के।

5) इसमें सफल होने वालों को वह स्वर्ग प्रदान करेगा और असफल होने वालों को नर्क। मनुष्य का जीवन चूंकि मृत्यु के पश्चात् अनंतकालिक है, इसलिए सफलता और असफलता भी अनंतकालिक होगी, सदा-सर्वदा के लिए होगी।

6) उस समय इन्सानों को ज्ञात होगा की वास्तविक सफलता वही है जो आख़िरत (मरणोपरान्त जीवन) में प्राप्त हो, और यह सफलता ईश्वर, उसके दूत और उसके द्वारा अवतरित पुस्तकों की सत्यता को स्विकार किए बिना संभव नहीं है।

ईश्वर द्वारा अवतरित पिछली पुस्तकों के अवशेष आज भी उपलब्ध हैं, परन्तु उनमें से कोई भी अपने वास्तविक रुप में मौजूद नहीं है। इस सत्य से कोई इन्कार नहीं कर सकता कि लोगों ने उन पुस्तकों को अपनी इच्छा के अनुकूल बनाने के लिए उसमें बहुत अधिक काट-छांट की है और अब उसकी वास्तविक शिक्षा विलुप्त होकर रह गई है।

अब पवित्र क़ुरआन ही वह अन्तिम और सुरक्षित ईशग्रंथ है, जो इन्सानों को ईश्वर की वास्तविक और मूल शिक्षा से अवगत करा सकता है। इस पुस्तक का 1450 वर्षों से पूर्णरुप से सुरक्षित होना इसकी सत्यता का सबसे बड़ा प्रमाण है।

इस समस्त बहस से यह निष्कर्ष निकलता है कि इस्लाम ही इन्सानों की सफलता का एकमात्र रास्ता है। इसके अतिरिक्त सारी शिक्षाऍँ मनुष्यों की अपनी गढ़ी हुई हैं और उनका ईश्वरीय मार्गदर्शन से कोई संबन्ध नहीं है। ईश्वर को मात्र पूजा तक सीमित करके अपने पूरे जीवन को उसके मार्गदर्शन से आ़़जाद कर लेना मनुष्य की सबसे बड़ी भूल है, जिसके कारण हमारी पूरी व्यवस्था छिन्न-भिन्न होकर रह गई है और हम सफलता एवं मुक्ति के मार्ग से भटक गए हैं।

प्रिय भाईयों और बहनों! आपसे अनुरोध है कि आप स्वच्छ हृदय से इस्लाम का अध्ययन करें। आप पाएंगे कि यह स्वयं हमारी अपनी आत्मा की आवाज़ है और हमें यह विश्वास हो जाएगा कि इस्लाम के अतिरिक्त सफलता एवं मुक्ति का और कोई मार्ग नहीं है।

सफलता एवं मुक्ति-मार्ग प्राप्त करने की कामना हम सभी को है। आइए, सत्य की खोज को हम आगे बढ़ाये।

इस्लाम अध्ययन हेतू सम्पर्क करें:

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